Tuesday, October 26, 2010

दस्तक

सुलग रही थी सासे मेरी
धधक रहा था तन मेरा
आंखे तरश  रही थी बारिश को
पर लगा रखा था तुमने पहरा
मौसम कर रही थी अटखेली
कभी बदलो का बसेरा देती
तो कभी धूप की किर-किरी
मचल रहा था मन मेरा
कब होगी बूंदों की बर्ष
और डूबेगा तन मेरा
जब हवाओ ने जुल्फों मे घुस कर
की थोड़ी सी मस्ती
बूंदों को चखने के लिए
प्यास मेरी और बढ़ी
गा रहा था बादल और
उस सुर पर थिरक रहे थे मेरे पैर
उस जंगल मे चहक रही थी
डर को सरे भूल गई थी
आगोश मे लेने को पुरे अम्बर को
बाहे मेरी बहक रही थी
जब छन से गिरी पहली बूँद तन पर
तृष्णा कुछ ऐसे बुझी
जैसे रेतो  को मिले बारिश की लरी
सारा अम्बर सजने लगा और
दुनिया मेरी बदल गए
टूटी-फूटी सी ज़िन्दगी मे
तुमने जब दस्तक ते दी
 
 
 
 
 

तेरी चाहत है मुझको

तेरी चाहत है मुझको
तेरे होने से राहत है मुझको
कुछ मिलो की दूरिय
भले है हमारे बीच
लेकिन तेरे छुअन की इनायत है मुझको
 
मेरे साँसों की गर्मी कहती है कुछ मुझसे
शायद तेरे रूहों की आदत है मुझको
तेरे यादो मे बहे आंसू
कहते है कुछ मुझसे
शायद तेरे सहारे की ज़रूरत है मुझको
 
चलती हू जब भी सुनसान रास्ते पर मै
तो मेरी ख़ामोशी कहती है कुछ मुझसे
शायद तेरे कदमो की आह्ट है मुझको
तेरे होने से कितनी राहत है मुझको
 
देखती हू जब भी खुद को आएने मे
महसूस होती है चाहत मुझको
तेरे परछाइ के होने की सोहबत है मुझको
तेर होने से कितनी रहत है मुझको
 
हर रात मुझको लगती है वो रात
शायद तेरे एहसासों की इनायत है मुझको
मेरे रोम-रोम मे बसते हो तुम
मेरी ज़िन्दगी जन्नत से नहीं है कम
तेरे होने से कितनी रहत है मुझको
 
गम-सुम सी थी मै पहले
पर बाबरी हो गई  हू
आज-कल तेरे प्यार मे
हस्ती हू गति हू नज्मे बनती हू
गर्मी भी लगती है सावन मुझको
शायद तेरे प्यार की चाहत है मुझको
तेरे होने से किनती रहत है मुझको