Wednesday, March 20, 2013

तलब



तुम  वो अफीम हो
जो मेरे रग-रग  में घुलकर  जन्नत तक पहुचाता है
सिगरेट का वो छल्ला हो शायद
जो खो कर भी मेरे साँसों में बसता है 
या अंगूर की नशिली  बूंद तुम
जो काफी है मेरे मदहोशी  के लिए
क्यों ऐसे अस्तित्व में हो मेरे भीतर
मधुशाला हो मेरी या बस हो खाली बोतल !!!

दुम्ची सा ये  रूप मेरा
ये सुर्ख लाल आंखे
हर कश में गम को पीना
और धुएं में  फिक्र उड़ाना 
सारी  दुनिया बातें बनाये
और तलब अपने अस्तित्व को पाना !!!

ये लड़खड़ाते  कदम मेरे
ये संभाला हुआ  होश
ये ताना-बाना कशो का
ये गम पिने का जोश
घुलती है ये मदहोशी
खून में  मेरे या रूह में मेरे
ये दुम्ची सा रूप मेरा
ये सुर्ख लाल आंखे।।।।




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