Wednesday, August 26, 2009

मेरा बिखरा आशियाना


खामोश रस्ते पर
भीर से बिपरीत शामियाने मे
एक सुनसान,तनहा,अकेले आशियाने मे
दबी-दबी सी सासों से चुपके-चुपके पाओ से
सोच-समझ कर अपना हर एक कदम बढा रही थी
डरी-डरी सी सिसक रही थी काप रहे थे मेरे हाथ
क्या दरवाज़ा खोलू और मिल जाये कोई सौगात
जब पहुची आशियाने के भीतर बंद पड़े थे सारे शाख
धुल बरस रही थी फर्श पर जैसे खालीपन हो उसके साथ
सहम-सहम कर कदम बढ़ रहे थे मेरे
और दरवाज़े सारे बंद पड़े थे
टूटी-फूटी छत से कुछ किरने बिखर रही थी
सोच रही थी इन किरणों को कर दू मै कैसे आबाद
टूटी सी एक मेज़ पर कुछ पन्ने बिखरे पड़े थे
और उन पन्नो पर यादो की एक धुल चढी थी
भटक रही थी हर कोने मे
चारो तरफ यादे बिखरी थी
समेट रही थी उन यादो को
अपने नन्हे से दामन मे
आखों से आसू बह रहे थे
मेरे मन के प्रांगन मे
खामोश रास्ते पर
भीर से बिपरीत शामियाने मे
एक सुनसान तनहा अकेले आशियाने मे

1 comment:

  1. gahre manobhav ki komal abhivakti.kavita jis tarah ek parivesh rachti hai vah prashansaniya hai.badhai .

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