Tuesday, October 26, 2010

दस्तक

सुलग रही थी सासे मेरी
धधक रहा था तन मेरा
आंखे तरश  रही थी बारिश को
पर लगा रखा था तुमने पहरा
मौसम कर रही थी अटखेली
कभी बदलो का बसेरा देती
तो कभी धूप की किर-किरी
मचल रहा था मन मेरा
कब होगी बूंदों की बर्ष
और डूबेगा तन मेरा
जब हवाओ ने जुल्फों मे घुस कर
की थोड़ी सी मस्ती
बूंदों को चखने के लिए
प्यास मेरी और बढ़ी
गा रहा था बादल और
उस सुर पर थिरक रहे थे मेरे पैर
उस जंगल मे चहक रही थी
डर को सरे भूल गई थी
आगोश मे लेने को पुरे अम्बर को
बाहे मेरी बहक रही थी
जब छन से गिरी पहली बूँद तन पर
तृष्णा कुछ ऐसे बुझी
जैसे रेतो  को मिले बारिश की लरी
सारा अम्बर सजने लगा और
दुनिया मेरी बदल गए
टूटी-फूटी सी ज़िन्दगी मे
तुमने जब दस्तक ते दी
 
 
 
 
 

4 comments:

  1. sulgege ja saseyn teri tn se dhekegi jwala.
    prem ke ght me jb dubogi bhr dega mn ka pyala.
    is pavitra se jwalavon ko perm neer dekr tum roko
    andar bhar ek jo dehey mn hoga uska mtwala....

    aapki kavita bahut acchi hai...

    ReplyDelete
  2. kaas..........
    if u really mean it

    ReplyDelete
  3. pranav@ ma ek lekhika hun jo sochti hu wo kalpnana bhi hoti h kabhi to kabhi haqiqat aur har kalpana ko apne haqiqat sa jorne ki koshiah mat kia karo.......khud ko hi takleef dogay..........

    ReplyDelete