Wednesday, May 4, 2011

तुम हो तो

तुम सपना हो तो फिर एक अतीत हो
तुम सुबह हो तो फिर मेरी उम्मीद हो

तुम रात हो तो सपनो का दीप हो
तुम सुबह हो तो फिर एक ओझल संगीत हो

तुम अमावस्या हो तो फिर काली रात हो
तुम पूर्णिमा हो तो फिर चांदनी की बरसात हो
तुम सावन हो तो खुशियों का उमंग  हो 
तुम बारिश हो तो फिर इन्द्रधनुष का रंग हो

तुम इंतज़ार हो तो मिलन का ऐतबार हो
तुम मिलन हो तो फिर मंजिल का द्वार  हो

तुम थोडा हो तो अंश हो मेरा
तुम भूत तो फिर भविष्य हो मेरा

तुम हो तो ...........कीर्ति राज
 





Friday, March 18, 2011

दर्द

                                                      
मेरे जीवन का सारांश है ये दर्द
मेरे स्नेह का प्रमाण है ये वर्ष 
कितनी खुबसूरत है ये आसुओ की माला
कितना नायाब है ये विरह का रोग 
फिर क्यों कहते हो मेरे दर्द को शोक

आँखों पर पर्दा है सबके
या अनदेखा करते है लोग
ये दर्द ही तो एक ज़रिया है 
जो रखता है तुम्हे हर ओर

लोग कहते है 
ये मेरा पागल मन है
मेरी दीवानगी और मेरी आंखे नम है
लेकिन जब भी पूछती हु खुद से
तो अक्सर कहते हो तुम 
ये तुम्हारा नहीं दुनिया वालो का भ्रम है  

कितनी रम गई हूँ इस दर्द में
कितना ख़ूबसूरत एहसास है ये
लगता है जैसे पा लिया हो
तुम्हे फिर से
 
कितने पागल है वो लोग
जो दर्द को खुशियो से तोलते है
इस दर्द में इतनी तृष्णा है
की जितनी मै डूबती जाती हूँ
उतने ही पास तुम्हे पाती हूँ........ 
Written by: Kirti Raj


 
  
 
 

Tuesday, February 8, 2011

''ज़िन्दगी''






''ज़िन्दगी'' पिरोती है मोती
या हमारे भीतर है होती
कहते ज़िन्दगी संसार है
या रस्मो,उत्सव का परिवार है......

ये समंदर लगती है मुझे
डरती हूँ कहीं डुबो न दे
तो कभी इसमे लगाती हूँ गोते
ये हवाए मेरी उम्मीदे उड़ाते
जब ये धूप मेरी हिम्मत पछाड़े
तब ''ज़िन्दगी'' को कर देती हूँ आगे ......

लोग ढूंढ़ते है इसे इर्द-गिर्द
क्यों नहीं अपने भीतर समाते
क्यों नहीं ये समझ पाते
ये ''ज़िन्दगी'' नहीं हम है
जो खुद को हसाते और खुद को रुलाते.....

अपना रुतबा लोग बड़ा  दिखाते
पर हम इंसान बनने का जतन लगाते
''ज़िन्दगी'' एक अध्याय है
कभी  हम सीखते और सिखाते........