Wednesday, April 3, 2013

ye frustration hai bhai....


ye frustration hai bhai
ye baat samajh na aai
aadi raat tak daftar key panno mein uljhay rahna
waqt bahakar dil kay kamro ko khali rakhna
akelaypan ki chaar diwari
aur kandho par ye zimmedari
ye frustration h bhai
ye baat samajh na aaai

sandwich burger aur beer bar
roti kay sang nhi ab maa ka dular
ristey natay bhul gaye hai
tiyohar bhi ab karobar
badal dia is daur ney humko
aur kho dia apna sanskar
ye frustration h bhai
ye baat samajh na aai

kahne ko hum bade ho chuke
rone ko ab na taiyar
dard chupaye dil mein rahte
aur emotions ka ye atyachar
dost sare collagues ban chuke
aur pyare boss ki fatkar
ye frustration h bhai 
ye baat samajh na aai

movie, masti aur awargi
bhata nhi ye sab bhi yar
shor gul aur ye sannata
sukun pane ki ye darkar
dhoond- dhoond kar thak gya hun
aur aanko mein na ninday char
sannata ek bhitar h mere
aur bahar ka ye jhoota pyar
ye frustration bhai
ye baat samajh na aai

khud say bebaak ye ladai
nakli parchai bhi saath hai aai
kyu mere swarth ka patra h ye
aur inke khohlay pan ki nib hun mai
ye jhoota jiwan ye nakli chola
kab na jane mere andar samaei
ye baat samajh na aai
ye frustration hai  bhai.

ye baat samajh na aai.....


 


 


 



Wednesday, March 20, 2013

तलब



तुम  वो अफीम हो
जो मेरे रग-रग  में घुलकर  जन्नत तक पहुचाता है
सिगरेट का वो छल्ला हो शायद
जो खो कर भी मेरे साँसों में बसता है 
या अंगूर की नशिली  बूंद तुम
जो काफी है मेरे मदहोशी  के लिए
क्यों ऐसे अस्तित्व में हो मेरे भीतर
मधुशाला हो मेरी या बस हो खाली बोतल !!!

दुम्ची सा ये  रूप मेरा
ये सुर्ख लाल आंखे
हर कश में गम को पीना
और धुएं में  फिक्र उड़ाना 
सारी  दुनिया बातें बनाये
और तलब अपने अस्तित्व को पाना !!!

ये लड़खड़ाते  कदम मेरे
ये संभाला हुआ  होश
ये ताना-बाना कशो का
ये गम पिने का जोश
घुलती है ये मदहोशी
खून में  मेरे या रूह में मेरे
ये दुम्ची सा रूप मेरा
ये सुर्ख लाल आंखे।।।।




Saturday, March 9, 2013

8 मार्च जो अंतरराष्ट्रीय  महिला दिवस के  रूप में मनाया जाता है।मगर क्या आज भी महिलाओ की स्थिति संतोषजनक है हमारे भारत में ।मेट्रो पोलिटन सहरो की तरफ रुख मोड़ा जाये तोह शायद महिलाओ ने एक  सम्मानजनक स्थिति  ज़रूर प्राप्त कर ली है  मगर आज भी गावो और कस्वो  की औरतो का जीवन दयनिये  है उन्हें  किन मुसीबतों से  लड़ना पड़ रहा है. आज भी हमारा प्रगतिशील  समाज योनशोषण, भ्रूण हत्या , दहेज़ जैसी कुप्रथाओ से ग्रस्त है . फिर क्या फायदा महिला दिवस का . सही मायनो में अ।ज भी औरतो की इस्थि उतनी दयनीये है  जीतनी पहले हुआ करता थी।बस शोषण का तरीका थोडा अधुनिकृत हो गया है।

आज के  दौर में महिलाये पुरशो में किसी भी मायने में कम नही है फिर ये असमानता क्यों। जैसे शादी की बात की जाये तो, कहते है ये दो परिवार और दो आत्माओ का मिलन  है फिर ये बाज़ार क्यों बनता जा रहा है लड़की पढ़ी-लिखी  हो, अनपढ़ हो या किसी अच्छे पद पर कार्यरत हो तो भी वो दहेज़ देने को बाधित है। बड़े सहरो की हालत थोड़ी संतोषजनक है मगर छोटे राज्यों की मानसिकती आज भी उतनी ही संक्तुचित है। बेटी है तोह बाहर पढने नही जा सकती, समाज क्या सोचेगा ,आस पड़ोस वाले क्या सोचेंगे और बस इन्ही ऑपचारिकताओ  के कारन  लड़कियो और बेटियो के सपने कुचले ,रौंदे जाते रहे  है। अगर माँ -बाप अपनी बेटी को उच्च शिक्षा दे खूब पैसे खर्च करके अपने बेटी को समाज के सामने खड़ा होने लायक बनाये तो भी जब शद्दि की बात अति है तोह  हमारा  खोखला  समाज जो प्रगति की दुहाइ  देता है  अपना लालची मुह खोल कर सामने आ खड़ा होता है और लड़की को परिवार फिर उसी चुनौती से गुज़ारना  पढ़ता  है।

अगर जीवन साथी चुनना हो तोह घर वाले तै करे, अ।गर अपने अंतर्जातिये प्रेम कर लिया है तोह ये किसी गुनाह से कम नही। हमारा आधुनिक समाज अपने तानो और शिकायतो से आपके सम्मान की धज्जिया उड़ा देता है। यहाँ पर भी वही असमानता की दिवार फिर क्या फायदा इस महिला दिवस का।जातीप्रथा आज  भी हमारे समाज में ज़हर की तरह घुली हुई है. आज  भी लोग उसी नपुंसक मानसिकता क साथ जी  रहे है. आज  भी आये  दिन अखबारों में पढने को मिलता है. दो पेर्मियो को मौत को  घाट उटारा  गया उनके ही अपने परिवार जनों के द्वारा, वजह अपने जात से बहार जाकर घर बसने का सपना संजोया था बस यही उनका गुनाह था। हमारे समाज ने बेशक बहुत प्रगति कर ली हो मगर उस मानसिकता  का क्या जो आज भी एक स्वस्थ और सुरक्षित सम।ज बनाने में असमर्थ है , हमें अभी भी जागने की ज़रूरत है अगर हम सच में महिला दिवस जैसे उत्सवो को सही मायने देना चाहते है।

अगर बात नौकरीपेशा महिलाओ की की जाये तो उनकी जिमेदारी भी पैसे कमाए तक ही ख़तम नही होती, घर चलाना , बच्चो और परिवार जानो की देख -रेख करना उसपर भी कुछ कमी रह जाये तोह घरेलु हिंसा का शिकार होना । प्रगति चाहिए और अगर अ।प महिला है तो योंशोषण आपके सामने आ खड़ा होता है  , आपके ही सहकर्मी या आपके उच्कर्मी ऐसी नीचता से भी पीछे नही हट्ते है .  हर जगह  संघर्ष, हर बार , हर वक़्त महिलाये बस अपने आप को साबित करने में अपनी पूरी ज़िन्दगी लगा देती है मगर आखिरी सांस तक ये समाज उनकी क़द्र नही कर पाता .
वो रोती  है, बिलकटी है,तड़पती है और खुद अपने आंसू पोछ कर अगले सुबह समाज से  लड़के निकल पढ़ती है। क्या हमारे समाज में महिलाओ की बस यही औकाद है, वो जानवरों की तरह पीटी  जाये,देर रात तक ब।हार रुकी तोह शायद बलात्कार का शिकार न हो जाये, दहेज़ देने के बाद  भी आग  में झुलसाइ  जाये, अगर गर्व  में हो तो पैदा  होने से  पहले ही मौत के  घाट उत।र दी जाये। फिर क्या फायदा २ तोफे देकर महिला दिवस मनाने का, अगर हम इस कुरीतियों  में से कुछ भी दूर कर पाए तो सही मायने मे ये हमारे लिए कीमती तोफा होगा,जीत होगी महिलाओ की इस समाज में जो आज भी महिलाओ को  पैर की जुती से जादा कुछ नही  समजते है, उनके लिए महिलाये बस एक उपभोग की वस्तु है. हम चाहे जितनी  भी उन्नति कर ले ,बड़ी बड़ी फक्ट्रिया खोल ले,प्रगति कर ले, अन्तार्रस्तिये स्तर पर उचायो  को छु ले अगर हम इस ब्रह्माण्ड की इस अनोखी और खुबसूरत  रचना '' जननी '' को सम्मान न दे सके तो हम एक नपुंसक समाज ही रहेंगे.
                     

जब आती है ज़मीन पर
हँसता नहीं कोई भी
फिर भी होती है माँ को ख़ुशी
क्यूंकि हम है स्त्री
भटकती है कभी-कभी
और राह दिखाती सभी
क्यों भीर मे अकेली खड़ी
सहती है क्या नहीं
दर्द की थपथपी
पर रंग देती है सभी
क्यूंकि हम है स्त्री

अस्तित्व की तलाश होती
पर मिलती न गली-गली
ढूँढती रहती पगली
धुंद मे खोई सी रहती
कभी आइना भी इंकार कर देती
आसुओ को छुप्पा जो लेती
क्यूंकि हम है स्त्री

इन्तेज़ार वो करती रहती
कभी धुप होती कभी छाव होती
पर उस पथ को देखती रहती
रिश्तो मे उलझ जाती
अपनी सारी इक्षाये दबाती
किसी को भी न बताती
क्यूंकि हम है स्त्री

अपनों के सपनो मे
तोर देती खुद के सपने
फिर सपनो मे भी न सपने पाती
खुद होती है अकेली
हर राह पर सहारा देती
पर पीछे होता न कोए भी
क्यूंकि हम है स्त्री

संग कोई साथी नही
फिर भी वो रोती नहीं
हस्ती है फिर भी
तनहा ही इस दुनिया मे
आती है तनहा होने
तनहा ही इस दुनिया से
खो जाती है तनहा होके
क्यूंकि हम है स्त्री!!!


रचनाकार : कीर्ति राज ..........















                


















Thursday, February 21, 2013

'मै'........




 हर तरफ  बस 'मै' ही 'मै' हूँ
मेरे अन्दर 'मै', मेरे बाहर 'मैं'
इर्द- गिर्द भीड़ मे भी 'मै' हूँ
'मै' मेरे जस्बात मे ,'मै'  मेरे विश्वास मे
मेरे गुरुर मे भी 'मैं' हूँ
'मैं' मेरे अस्तित्व मे  , 'मैं' मेरे नादानियो मे 
मेरे बेमानिओ मे भी 'मैं' हूँ
हर ज़र्रे-ज़र्रे मे 'मैं'
मेरी आँखों मे 'मैं', मेरी बातों में 'मैं'
मेरे घमंड और तकदीर मे भी 'मैं' हूँ
शून्य मे 'मैं', हवा मे 'मैं'
आग और पानी मे भी 'मैं' हूँ
चिडियों की चहचहाहट मे 'मैं' ,
पानी के झरने मे 'मैं'
इस कुदरत में भी 'मैं' हूँ
'मैं' इधर- उधर हर तरफ हूँ
बस 'मैं' हूँ और 'मैं' ही  हूँ
'मैं'........