Thursday, December 23, 2010

December ki sardi

तुम मिलते हो मुझे यादो में
मेरे बातो और तुम्हारे वादों  में
सर्दी के मौसम की वो कपकपी
एक प्याले से चाय पिने की जो लत थी
आधी रात के सन्नाटे मे वो बातें करना
वो दिसम्बर की सर्दी
और नए साल का स्वागत गाना
याद आते  हो तुम आज भी इन सर्दियो में
जब सुनसान राहों पर
तुम्हारे हाथो की गर्मी नहीं मिलती
चाय की चुसकिया भी ठंढी पड़ी रहती
मेरी ख़ामोशी भी हद में रहती
और भीगी सी ये सर्दी
तुम्हारे बगैर तरसती रहती
याद है तुम्हे वो
गरम समोसे और वो चौपाठी की चाय
हर थेयेटर के शो मे जाना
वो दो पहिये पर धुल उड़ाना
और दोस्तों को झासा देकर
हर शाम मुझसे मिलने आना
वो कभी-कभी भीड़ में रहकर 
तुम्हारा स्पर्श पाना और
तुम्हारी  बाहों में गिर जाना
वो छोटी-छोटी सी बातें
देखो बन गई  तुम्हारी यादें
इस सर्दी में तुम साथ नहीं हो
फिर भी होती है तुमसे हर पल बातें
देखो दिसम्बर की सर्दी है आई
चलो फिर से एक-दूजे के हो जाते ................................कीर्ति राज

Tuesday, October 26, 2010

दस्तक

सुलग रही थी सासे मेरी
धधक रहा था तन मेरा
आंखे तरश  रही थी बारिश को
पर लगा रखा था तुमने पहरा
मौसम कर रही थी अटखेली
कभी बदलो का बसेरा देती
तो कभी धूप की किर-किरी
मचल रहा था मन मेरा
कब होगी बूंदों की बर्ष
और डूबेगा तन मेरा
जब हवाओ ने जुल्फों मे घुस कर
की थोड़ी सी मस्ती
बूंदों को चखने के लिए
प्यास मेरी और बढ़ी
गा रहा था बादल और
उस सुर पर थिरक रहे थे मेरे पैर
उस जंगल मे चहक रही थी
डर को सरे भूल गई थी
आगोश मे लेने को पुरे अम्बर को
बाहे मेरी बहक रही थी
जब छन से गिरी पहली बूँद तन पर
तृष्णा कुछ ऐसे बुझी
जैसे रेतो  को मिले बारिश की लरी
सारा अम्बर सजने लगा और
दुनिया मेरी बदल गए
टूटी-फूटी सी ज़िन्दगी मे
तुमने जब दस्तक ते दी
 
 
 
 
 

तेरी चाहत है मुझको

तेरी चाहत है मुझको
तेरे होने से राहत है मुझको
कुछ मिलो की दूरिय
भले है हमारे बीच
लेकिन तेरे छुअन की इनायत है मुझको
 
मेरे साँसों की गर्मी कहती है कुछ मुझसे
शायद तेरे रूहों की आदत है मुझको
तेरे यादो मे बहे आंसू
कहते है कुछ मुझसे
शायद तेरे सहारे की ज़रूरत है मुझको
 
चलती हू जब भी सुनसान रास्ते पर मै
तो मेरी ख़ामोशी कहती है कुछ मुझसे
शायद तेरे कदमो की आह्ट है मुझको
तेरे होने से कितनी राहत है मुझको
 
देखती हू जब भी खुद को आएने मे
महसूस होती है चाहत मुझको
तेरे परछाइ के होने की सोहबत है मुझको
तेर होने से कितनी रहत है मुझको
 
हर रात मुझको लगती है वो रात
शायद तेरे एहसासों की इनायत है मुझको
मेरे रोम-रोम मे बसते हो तुम
मेरी ज़िन्दगी जन्नत से नहीं है कम
तेरे होने से कितनी रहत है मुझको
 
गम-सुम सी थी मै पहले
पर बाबरी हो गई  हू
आज-कल तेरे प्यार मे
हस्ती हू गति हू नज्मे बनती हू
गर्मी भी लगती है सावन मुझको
शायद तेरे प्यार की चाहत है मुझको
तेरे होने से किनती रहत है मुझको
 
 
 
 
 
 

Sunday, July 25, 2010

मेरे जैसी

क्या तुमने कभी
मेरे चेहरे की झुर्रियो को देखा है
क्या सफ़ेद बालो का गुच्छा
और ज़बान की लड़खड़ाहट देखि है
देखा तो था तुमने मेरे योवन का रूप
पर क्या उम्र की दहलीज़ देखि है
देखा तो था तुमने मुझ्रे
तब्ती धूप और तूफान मे तुम्हारा इंतज़ार करते
पर क्या उस बूढी आँखों की प्यास देखि है
देखा तो था तुमने मुझे
इतराते और शरमाते
पर क्या मेरे बातो की गंभीरता देखि है
देखा तो था तुमने मेरी अटखेली
और मेरा जूनून से भरा प्यार
पर क्या अब् तक उस प्यार की डोर देखि है
हूँ तो नहीं मै उस जैसी अब्
पर क्या उसका इंतज़ार मुझ जैसा है
होगी वो बहुत सुन्दर,चंचल और निर्मल
पर क्या उसका शीशा मुझ जैसा है
प्यारी तो वो है तुम्हारी अब् भी
पर क्या उसका प्यार मुझ जैसा है
उसने तो बस प्यार को चखा है
पर क्या उसका इंतज़ार मुझ जैसा है
बैठी हू मै अब् भी इस पार
फिर कैसे वो मुझ जैसा है

Wednesday, July 21, 2010

अनुभव

मै आज कल सबको तनहा सी लगती हू
बुझी-बुझी एक शमा सी लगती हू
देखते तो सब है मेरी तन्हाई
फिर क्यों लगती है मुझको प्यारी ये रूसवाई 
शाम से बैठी हूँ किसी के इंतज़ार मे
और वो वयस्त है अपने नए संसार मे
शिकवा नहीं है मुझे किसी से
बस नाराज़गी है अपने वयवहार से
जब भी देखती हूँ आसमान मे चाँद को
तो कहती हू चकोर से 
तू भी तो नहीं है उसके पास
फिर क्यों बजाता है मेरे तन्हाई पर साज़
कहते है मेरे दोस्त रिश्तो का दामन चाक है
अब् विश्वास और भरोसे का उड़ता मजाक है
थोड़े हौसले झुकते से दिख रहे है मेरे
शायद वजह किसी का दिया हुआ विश्वासघात है
खुश हूँ मै फिर भी
क्युकी सिखा जो मैंने आज है
वो अनुभव न पैसो का मोहताज है 


Wednesday, April 28, 2010

क्या है ये शून्य


क्या है ये शून्य.......................
क्या आकाश की बस्ती मे बादलों का खोना


या जुलाई के मौसम मे बारिश का होना


या रात के सन्नाटे मे हर आँखों का सोना


या आँखों मे खवाब भर के शब्दों को पिरोना


क्या है ये शुन्य......................


सुखी मिटटी मे पानी के हर बूंद का खोना


या घने जंगल मे मकड़ी का जालो को पिरोना


या लहरों के पीछे हर लहरों का होना


या गिले रेट मे हर कीर्ति का बहना


क्या है ये शुन्य...........................


रात के सन्नाटे मे घरी की टिक-टिक का होना


या सुबह-सुबह चिरियो के गीतों का होना


या किसी तानसेन के ताल मे खोना


क्या है ये शुन्य...........................


भीर मे अकेला होना


या दूर एक सुनसान सड़क पर सोना


या रात-रात भर जाग कर अपनी हार पर रोना


या रो-रो कर फिर से सोना


क्या है ये शुन्य...........................


शारीर का मिटटी मे मिलना


या नए किलकारी का जन्म होना


ये जानकर भी उस चक्र मे खोना


या पाना या पाकर भी खोना


क्या है ये शुन्य..............................


पागलो की तरह शब्दों से लड़ना


या तोड़ मोड़ कर आशावो को जोड़ना


या आधी रात मे सड़क का सन्नाटे मे होना


और सन्नाटे के संग अपनी रूह का खोना


या पागलपन की बाते करना


या पागलपन मे जीना


क्या है ये शुन्य.............................


रातो मे जाग कर शब्दों से बाते करना


या अपने सवालो से शब्दों को ठगना


या शुन्य की तलाश मे शुन्य को खोना


क्या है ये शून्य..............................









Saturday, February 13, 2010

कैसे


कैसे तुम्हे मै भुलाऊ
तुम तो हर कोने मै बसते हो
कैसे तुमको मै बताऊ
तुम तो मेरे रूह को रचते हो
कैसे उन बिखरे मोतियो को समेटू
जो तुम्हारे स्पर्श के लिए
फर्श पर बिखरे परे
कैसे तोडू उस चादर की सिलवटो को
जो तुम्हारे स्पर्श की याद दिलाती है
कैसे सवारू उलझे लटो को अपनी
जिसे तुमने अपनी उंगलियो से सवारा था

कैसे हटाऊ बिखरे काजल को अपने आँखों से
कैसे छुपाऊ आचल को अपनी आहो से
जिसमे आज भी तुम्हारी खुसबू बस्ती है
कैसे सवारू उस कमरे को
जिसके हर कोने मे तुम बसते हो
वो मुरझाये कुचले सूखे मोगरे के फूल
आज भी उलझी लटो से उल्हज रहे है
उस मोमबत्ती की पिघली धार
आज भी तरस रही है जलने को
कैसे सवारू फिर से उस कमरे को
जिसके हर तिनके मे तुम बसते हो
कैसे तुमको मे छुपाऊ
कैसे तुमको मे भुलाऊ