बुझी-बुझी एक शमा सी लगती हू
देखते तो सब है मेरी तन्हाई
फिर क्यों लगती है मुझको प्यारी ये रूसवाई
शाम से बैठी हूँ किसी के इंतज़ार मे
और वो वयस्त है अपने नए संसार मे
शिकवा नहीं है मुझे किसी से
बस नाराज़गी है अपने वयवहार से
जब भी देखती हूँ आसमान मे चाँद को
तो कहती हू चकोर से
तू भी तो नहीं है उसके पास
फिर क्यों बजाता है मेरे तन्हाई पर साज़
कहते है मेरे दोस्त रिश्तो का दामन चाक है
अब् विश्वास और भरोसे का उड़ता मजाक है
थोड़े हौसले झुकते से दिख रहे है मेरे
शायद वजह किसी का दिया हुआ विश्वासघात है
खुश हूँ मै फिर भी
क्युकी सिखा जो मैंने आज है
वो अनुभव न पैसो का मोहताज है
um wordless................ simply great
ReplyDeleteसिर्फ एक शब्द...उम्दा
ReplyDeletei m overwhelmed
ReplyDeletewaiting 4 next.................