Wednesday, March 14, 2012

ज़र्रा ज़र्रा ये ज़िन्दगी


ज़र्रा ज़र्रा ये ज़िन्दगी
फिर भी कुछ है कमी
कुछ बिखरे पन्ने जोरे है
कुछ छूटे राहें  मोरे है
फिर भी ज़िन्दगी है थमी
ज़र्रा ज़र्रा ये ज़िन्दगी

बातें मेरी ख़त बन रहीं है
सुनने को कोई भी नहीं
बारिश में बैठे एहसासे भीग रही है
सुध लेने की खबर नहीं
ज़र्रा ज़र्रा ये ज़िन्दगी

ब्यस्त हो तुम अपने आशियाने में
मेरी न कोई कमी
मुर के देख लो एक बार
शायद हमारी यादें
अब भी कहीं वहीँ पड़ी
ज़र्रा ज़र्रा ये ज़िन्दगी

आँखें नम होती थी पहले
अब तो वो भी नमी नहीं
मिलने आ जाते थे तुम
जब याद आती थी मेरी
अब तो वो भी वजह नहीं
ज़र्रा ज़र्रा ये ज़िन्दगी

न जाने  कहाँ खो दिया है तुमको
घुटती हूँ ऐसे भीतर
जैसे खो दिया  हो खुद को
खुद से दुबारा मिलने की एक आस थी मन में
तुम्हारे जाने  से वो ख्याल भी सो गई   
मैं फिर से तनहा सी हो गई
थम गई है ज़िन्दगी
ज़र्रा ज़र्रा ये ज़िन्दगी

रचनाकार : कीर्ति राज

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