ज़र्रा ज़र्रा ये ज़िन्दगी
फिर भी कुछ है कमी
कुछ बिखरे पन्ने जोरे है
कुछ छूटे राहें मोरे है
फिर भी ज़िन्दगी है थमी
ज़र्रा ज़र्रा ये ज़िन्दगी
बातें मेरी ख़त बन रहीं है
सुनने को कोई भी नहीं
बारिश में बैठे एहसासे भीग रही है
सुध लेने की खबर नहीं
ज़र्रा ज़र्रा ये ज़िन्दगी
ब्यस्त हो तुम अपने आशियाने में
मेरी न कोई कमी
मुर के देख लो एक बार
शायद हमारी यादें
अब भी कहीं वहीँ पड़ी
ज़र्रा ज़र्रा ये ज़िन्दगी
आँखें नम होती थी पहले
अब तो वो भी नमी नहीं
मिलने आ जाते थे तुम
जब याद आती थी मेरी
अब तो वो भी वजह नहीं
ज़र्रा ज़र्रा ये ज़िन्दगी
न जाने कहाँ खो दिया है तुमको
घुटती हूँ ऐसे भीतर
जैसे खो दिया हो खुद को
खुद से दुबारा मिलने की एक आस थी मन में
तुम्हारे जाने से वो ख्याल भी सो गई
मैं फिर से तनहा सी हो गई
थम गई है ज़िन्दगी
ज़र्रा ज़र्रा ये ज़िन्दगी
रचनाकार : कीर्ति राज
No comments:
Post a Comment