Tuesday, August 25, 2009

क्यूंकि हम है स्त्री!!!!!!!!!!!!!!


जब आती है ज़मीन पर
हँसता नहीं कोई भी
फिर भी होती है माँ को ख़ुशी
क्यूंकि हम है स्त्री

भटकती है कभी-कभी
और राह दिखाती सभी
क्यों भीर मे अकेली खड़ी
क्यूंकि हम है स्त्री

सहती है क्या नहीं
दर्द की थपथपी
पर रंग देती है सभी
क्यूंकि हम है स्त्री

अस्तित्व की तलाश होती
पर मिलती न गली-गली
ढूँढती रहती पगली
क्यूंकि हम है स्त्री

धुंद मे खोई सी रहती
कभी आइना भी इंकार कर देती
आसुओ को छुप्पा जो लेती
क्यूंकि हम है स्त्री

इन्तेज़ार वो करती रहती
कभी धुप होती कभी छाव होती
पर उस पथ को देखती रहती
क्यूंकि हम है स्त्री

रिश्तो मे उलझ जाती
अपनी सारी इक्षाये दबाती
किसी को भी न बताती
क्यूंकि हम है स्त्री

अपनों के सपनो मे
तोर देती खुद के सपने
फिर सपनो मे भी न सपने पाती
क्यूंकि हम है स्त्री

खुद होती है अकेली
हर राह पर सहारा देती
पर पीछे होता न कोए भी
क्यूंकि हम है स्त्री

संग कोई साथी नही
फिर भी वो रोती नहीं
हस्ती है फिर भी
क्यूंकि हम है स्त्री

तनहा ही इस दुनिया मे
आती है तनहा होने
तनहा ही इस दुनिया से
खो जाती है तनहा होके
क्यूंकि हम है स्त्री!!!!!!!!!!!!!!!

3 comments:

  1. good .i dont know that you are a good poemiest.good hai.gr8 going

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  2. This is all about the worth of the women, who came on earth and from the first day how they alive...n make us feel that yes only women can do...becuase you all r women..Rajeev..

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